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ए॒तं ते॑ देव सवितर्य॒ज्ञं प्राहु॒र्बृह॒स्पत॑ये ब्र॒ह्मणे॑। तेन॑ य॒ज्ञम॑व॒ तेन॑ य॒ज्ञप॑तिं॒ तेन॒ माम॑व ॥१२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒तम्। ते॒। दे॒व॒। स॒वि॒तः॒। य॒ज्ञम्। प्र। आ॒हुः॒। बृह॒स्पत॑ये। ब्र॒ह्मणे॑। तेन॑। य॒ज्ञम्। अ॒व॒। तेन॑। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। तेन॑। माम्। अ॒व॒ ॥१२॥

यजुर्वेद » अध्याय:2» मन्त्र:12


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

किस प्रयोजन के लिये और किस ने यह विद्या का प्रबन्ध प्रकाशित किया है, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देव) दिव्य सुख वा उत्तम गुण देने तथा (सवितः) सब ऐश्वर्य का विधान करनेवाले जगदीश्वर ! वेद और विद्वान् आप के प्रकाशित किये हुए (एतम्) इस पूर्वोक्त यज्ञ को (प्राहुः) अच्छी प्रकार कहते हैं कि जिससे (बृहस्पतये) बड़ों में बड़ी जो वेदवाणी है, उसके पालन करनेवाले (ब्रह्मणे) चारों वेदों के पढ़ने से ब्रह्मा की पदवी को प्राप्त हुए विद्वान् के लिये सुख और श्रेष्ठ अधिकार प्राप्त होते हैं। इस (यज्ञम्) यज्ञ सम्बन्धी धर्म से (यज्ञपतिम्) यज्ञ को करने वा सब प्राणियों को सुख देनेवाले विद्वान् और उस विद्या वा धर्म के प्रकाश से (माम्) मेरी भी (अव) रक्षा कीजिये ॥१२॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर ने सृष्टि के आदि में दिव्यगुणवाले अग्नि, वायु, रवि और अङ्गिरा ऋषियों के द्वारा चारों वेद के उपदेश से सब मनुष्यों के लिये विद्याप्राप्ति के साथ यज्ञ के अनुष्ठान की विधि का उपदेश किया है, जिससे सब की रक्षा होती है, क्योंकि विद्या और शुद्धि क्रिया के बिना किसी को सुख वा सुख की रक्षा प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिये हम सब को उचित है कि परस्पर प्रीति के साथ अपनी वृद्धि और रक्षा यत्न से करनी चाहिये। जो ग्यारहवें मन्त्र से यज्ञ का फल कहा है, उसका प्रकाश परमेश्वर ही ने किया है, ऐसा इस मन्त्र से विधान है ॥१२॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

कस्मै प्रयोजनाय केनायं विद्याप्रबन्धः प्रकाशित इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(एतम्) पूर्वोक्तम् (ते) तव (देव) दिव्यसुखगुणानां दातः (सवितः) सकलैश्वर्य्यविधातर्जगदीश्वर (यज्ञम्) यं सुखाय यष्टुमर्हम् (प्राहुः) प्रकृष्टं ब्रुवन्ति (बृहस्पतये) बृहत्या वेदवाण्याः पालकाय (ब्रह्मणे) चतुर्वेदाध्ययनेन ब्रह्मत्वाधिकारं प्राप्ताय (तेन) बृहद्विज्ञानदानेन (यज्ञम्) पूर्वोक्तं त्रिविधम् (अव) नित्यं रक्ष (तेन) धर्मानुष्ठानेन (यज्ञपतिम्) यज्ञस्यानुष्ठानेन पालकम् (तेन) विद्याधर्मप्रकाशेन (माम्) (अव) रक्ष ॥ अयं मन्त्रः (शत०१.७.४.१४-२१) व्याख्यातः ॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे देव सवितर्जगदीश्वर ! वेदा विद्वांसश्च यमेतं यज्ञं भवत्प्रकाशितं प्राहुर्येन बृहस्पतये ब्रह्मणे सुखाधिकाराः प्राप्नुवन्ति, तेनेमं यज्ञं यज्ञपतिं मां चाव सततं रक्ष ॥१२॥
भावार्थभाषाः - ईश्वरेण सृष्ट्यादौ गुणवद्भ्योऽग्निवायुरव्यङ्गिरोभ्यश्चतुर्वेदोपदेशेन सर्वेषां मनुष्याणां विद्याप्राप्त्या सुखाय यज्ञानुष्ठानविधिरुपदिष्टोऽनेनैव रक्षणविधानं च। नैव विद्याशुद्धिक्रियाभ्यां विना कस्यचित् सुखरक्षणे भवितुमर्हतस्तस्मात् सर्वैः परस्परं प्रीत्यै तयोर्वृद्धिरक्षणे प्रयत्नतः सदैव कार्य्ये। यश्चैकादशेन मन्त्रेण यज्ञफलभोग उक्तस्तत्प्रकाश ईश्वरेणैव कृत इति गम्यते ॥१२॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ईश्वराने सृष्टीच्या आरंभी माणसांसाठी दिव्य गुणांनी युक्त असलेल्या अग्नी, वायू, आदित्य व अंगीरा ऋषीद्वारे चारही वेदांमधून विद्या व यज्ञाच्या अनुष्ठानाचाही उपदेश केलेला आहे. त्यामुळे सर्वांचे रक्षण होते, कारण वेदविद्या व यज्ञाद्वारे शुद्धिक्रिया केल्याखेरीज कुणालाही सुख मिळू शकत नाही व सुखाचे रक्षणही होऊ शकत नाही. म्हणून प्रयत्नपूर्वक व परस्पर प्रेमाने आपले रक्षण व्हावे व उन्नतीही व्हावी, असे वागले पाहिजे. अकराव्या मंत्रात यज्ञाच्या ज्या फळाचे वर्णन केलेले आहे त्याचेच स्पष्टीकरण या मंत्रात केले आहे.